Surdas ke Pad Class 10 Hindi Chapter 1 | Full Explanation & Meaning

Surdas ke Pad Class 10 Hindi Chapter 1

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Chapter Overview | Surdas ke Pad Class 10 Hindi Chapter 1

पाठ का नाम: सूरदास के पद कवि: सूरदास संग्रह: सूरसागर (भ्रमरगीत खंड) युग: भक्ति काल – सगुण भक्ति शाखा भाषा: ब्रज भाषा रस: श्रृंगार, भक्ति, विरह

भाव और प्रसंग की गहराई

इस अध्याय में चार पद हैं, जो गोपियों और उद्धव के बीच संवाद के रूप में रचे गए हैं। श्रीकृष्ण ने मथुरा जाने के बाद उद्धव को योग और ज्ञान का संदेश देकर गोपियों को समझाने भेजा। लेकिन गोपियाँ प्रेम और भक्ति के मार्ग को श्रेष्ठ मानती हैं और उद्धव की बातों को व्यंग्य और तर्क से खारिज कर देती हैं।

सूरदास के भ्रमरगीत के पद पाठ व्याख्या (Surdas ke Pad Class 10 Hindi Chapter 1 )

पहला पद 

ऊधौ , तुम हौ अति बड़भागी ।
अपरस रहत सनेह तगा तैं , नाहिन मन अनुरागी ।
पुरइनि पात रहत जल भीतर , ता रस देह न दागी ।
ज्यौं जल माहँ तेल की गागरि , बूँद न ताकौं लागी ।
प्रीति – नदी मैं पाउँ न बोरयौ , दृष्टि न रूप परागी ।
‘ सूरदास ‘ अबला हम भोरी , गुर चाँटी ज्यौं पागी ||

पद की पंक्तियाँ और भावार्थ:

“ऊधौ, तुम हौ अति बड़भागी”

गोपियाँ कहती हैं—ऊधौ! तुम बहुत भाग्यशाली हो। भावार्थ: तुम श्रीकृष्ण के इतने निकट रहते हो, फिर भी उनके प्रेम में नहीं डूबे। यह तुम्हारा सौभाग्य है या दुर्भाग्य—हम नहीं कह सकते।

“अपरस रहत सनेह तगा तैं, नाहिन मन अनुरागी”

तुम प्रेम के धागे से अछूते रहे, तुम्हारे मन में अनुराग नहीं है। भावार्थ: तुम्हारा हृदय प्रेम से रहित है। तुम श्रीकृष्ण के साथ रहते हुए भी उनके प्रेम को नहीं समझ सके।

“पुरइनि पात रहत जल भीतर, ता रस देह न दागी”

कमल का पत्ता पानी में रहता है, फिर भी गीला नहीं होता। भावार्थ: तुम भी श्रीकृष्ण के प्रेम-सागर में रहते हुए भी उसमें डूबे नहीं। जैसे कमल का पत्ता जल में रहकर भी जल को ग्रहण नहीं करता।

“ज्यौं जल माहँ तेल की गागरि, बूँद न ताकौं लागी”

जैसे तेल से सना घड़ा पानी में डूबे, फिर भी पानी की एक बूंद भी उस पर नहीं टिकती। भावार्थ: तुम्हारा मन इतना कठोर है कि श्रीकृष्ण के प्रेम की एक बूंद भी उसमें नहीं ठहर सकी।

“प्रीति – नदी मैं पाउँ न बोरयौ, दृष्टि न रूप परागी”

तुमने प्रेम की नदी में पैर तक नहीं डुबोया, न ही श्रीकृष्ण के रूप में खोए। भावार्थ: तुमने न प्रेम को अपनाया, न श्रीकृष्ण के सौंदर्य में लीन हुए। तुम्हारा मन योग में उलझा रहा।

“‘सूरदास’ अबला हम भोरी, गुर चाँटी ज्यौं पागी”

हम भोली-भाली गोपियाँ तो श्रीकृष्ण के प्रेम में ऐसे लिप्त हैं जैसे चींटी गुड़ में चिपक जाती है। भावार्थ: हम तो पूरी तरह कृष्ण-प्रेम में डूब चुकी हैं। हमारा प्रेम गहरा, सच्चा और आत्मसमर्पण से भरा है।

काव्य सौंदर्य और विशेषताएँ:

तत्व विवरण
भाषा ब्रज भाषा – भावपूर्ण और व्यंग्यात्मक
अलंकार उपमा (कमल पत्ता, तेल घड़ा), रूपक, व्यंग्य
भाव कृष्ण-वियोग, प्रेम की गहराई, योग का तिरस्कार
शैली संवादात्मक, भावनात्मक, व्यंग्यात्मक

दूसरा पद

 मन की मन ही माँझ रही ।
कहिए जाइ कौन पै ऊधौ , नाहीं परत कही ।
अवधि अधार आस आवन की , तन मन बिथा सही ।
अब इन जोग सँदेसनि सुनि – सुनि , बिरहिनि बिरह दही ।
चाहति हुतीं गुहारि जितहिं तैं , उत तैं धार बही ।
‘ सूरदास ’ अब धीर धरहिं क्यौं , मरजादा न लही ।

पंक्ति-दर-पंक्ति भावार्थ और व्याख्या:

“मन की मन ही माँझ रही”

हमारे मन की बात हमारे मन में ही रह गई। भावार्थ: गोपियाँ कहती हैं कि वे श्रीकृष्ण से जो कहना चाहती थीं, वह कभी कह नहीं सकीं। उनके प्रेम और पीड़ा को कोई समझ नहीं पाया।

“कहिए जाइ कौन पै ऊधौ, नाहीं परत कही”

अब बताओ ऊधौ, किससे जाकर कहें? कोई समझ ही नहीं पाता। भावार्थ: गोपियाँ अपनी व्यथा किसी से साझा नहीं कर सकतीं क्योंकि कोई उनके प्रेम की गहराई को समझने योग्य नहीं है।

“अवधि अधार आस आवन की, तन मन बिथा सही”

कृष्ण के लौटने की आशा में समय बीतता गया, और हमने तन-मन की पीड़ा सह ली। भावार्थ: गोपियाँ श्रीकृष्ण के आने की उम्मीद में जीती रहीं, लेकिन वह आशा अधूरी रह गई। उन्होंने वियोग की पीड़ा को सहा।

“अब इन जोग सँदेसनि सुनि – सुनि, बिरहिनि बिरह दही”

अब बार-बार योग के संदेश सुनकर वियोगिनी गोपियाँ जल रही हैं। भावार्थ: गोपियाँ कहती हैं कि उद्धव के योग-संदेश उनके घावों पर नमक छिड़कने जैसा है। वे पहले ही वियोग में जल रही थीं, अब ये बातें उन्हें और दुखी कर रही हैं।

“चाहति हुतीं गुहारि जितहिं तैं, उत तैं धार बही”

जहाँ वे श्रीकृष्ण से रक्षा की गुहार करना चाहती थीं, वहीं से अब आँसू की धार बह रही है। भावार्थ: गोपियाँ श्रीकृष्ण से प्रेम और सहारा चाहती थीं, लेकिन अब उनकी आँखों से केवल आँसू बहते हैं। कृष्ण ने उन्हें छोड़ दिया।

“‘सूरदास’ अब धीर धरहिं क्यौं, मरजादा न लही”

अब सूरदास कहते हैं—गोपियाँ धैर्य कैसे रखें, जब उन्हें प्रेम की मर्यादा भी नहीं मिली। भावार्थ: गोपियाँ कहती हैं कि जब प्रेम में उन्हें सम्मान या उत्तर नहीं मिला, तो वे धैर्य कैसे रखें? उनका प्रेम एकतरफा और उपेक्षित रह गया।

काव्य सौंदर्य और विशेषताएँ:

तत्व विवरण
भाषा ब्रज भाषा – भावपूर्ण और व्यंग्यात्मक
अलंकार रूपक, अनुप्रास, व्यंग्य
भाव कृष्ण-वियोग, प्रेम की पीड़ा, योग का तिरस्कार
शैली संवादात्मक, भावनात्मक, तर्कपूर्ण

तीसरा पद

हमारैं हरि हारिल की लकरी ।
मन क्रम बचन नंद – नंदन उर , यह दृढ़ करि पकरी ।
जागत सोवत स्वप्न दिवस – निसि , कान्ह – कान्ह जक री ।
सुनत जोग लागत है ऐसौ , ज्यौं करुई ककरी ।
सु तौ ब्याधि हमकौं लै आए , देखी सुनी न करी ।
यह तौ ‘ सूर ’ तिनहिं लै सौंपौ , जिनके मन चकरी ।।

पंक्ति-दर-पंक्ति भावार्थ और व्याख्या:

“हमारैं हरि हारिल की लकरी”

हमारे श्रीकृष्ण हारिल पक्षी की लकड़ी जैसे हैं। भावार्थ: गोपियाँ कहती हैं कि उनका प्रेम श्रीकृष्ण के लिए ऐसा है जैसे हारिल पक्षी लकड़ी को पकड़ता है—एक बार पकड़ने के बाद उसे कभी नहीं छोड़ता। उनका प्रेम अटूट और दृढ़ है।

“मन क्रम बचन नंद – नंदन उर , यह दृढ़ करि पकरी”

हमने मन, कर्म और वचन से नंदनंदन श्रीकृष्ण को अपने हृदय में दृढ़ता से पकड़ लिया है। भावार्थ: गोपियाँ कहती हैं कि उनका सम्पूर्ण अस्तित्व—मन, वचन और कर्म—श्रीकृष्ण में समर्पित है। वे उन्हें छोड़ने की कल्पना भी नहीं कर सकतीं।

“जागत सोवत स्वप्न दिवस – निसि , कान्ह – कान्ह जक री”

जागते, सोते, सपनों में, दिन-रात—हर समय हम श्रीकृष्ण को ही याद करती हैं। भावार्थ: गोपियाँ कहती हैं कि उनका हर क्षण श्रीकृष्ण के नाम से जुड़ा है। वे उनके बिना कुछ सोच भी नहीं सकतीं।

“सुनत जोग लागत है ऐसौ , ज्यौं करुई ककरी”

योग की बातें सुनकर ऐसा लगता है जैसे करेला खा लिया हो। भावार्थ: गोपियाँ योग-संदेश को कटु और अप्रिय मानती हैं। उनके लिए यह प्रेम की मिठास को बिगाड़ने जैसा है।

“सु तौ ब्याधि हमकौं लै आए , देखी सुनी न करी”

वह (योग) तो हमारे लिए बीमारी बनकर आया है, जिसे हमने न देखा, न सुना था। भावार्थ: गोपियाँ कहती हैं कि योग उनके लिए एक मानसिक पीड़ा है। उन्होंने कभी इसकी कल्पना नहीं की थी, और अब यह उन्हें दुख दे रहा है।

“यह तौ ‘ सूर ’ तिनहिं लै सौंपौ , जिनके मन चकरी”

हे सूरदास! यह योग उन लोगों को दे दो जिनका मन चंचल है। भावार्थ: गोपियाँ कहती हैं कि योग उन लोगों के लिए है जो प्रेम में स्थिर नहीं हैं। उनका मन श्रीकृष्ण में स्थिर है, इसलिए उन्हें योग की आवश्यकता नहीं।

काव्य सौंदर्य और विशेषताएँ:

तत्व विवरण
भाषा ब्रज भाषा – भावपूर्ण और व्यंग्यात्मक
अलंकार उपमा (हारिल की लकड़ी, करेला), रूपक, व्यंग्य
भाव कृष्ण-वियोग, प्रेम की दृढ़ता, योग का तिरस्कार
शैली संवादात्मक, भावनात्मक, तर्कपूर्ण

चौथा पद 

हरि हैं राजनीति पढ़ि आए ।
समुझी बात कहत मधुकर के , समाचार सब पाए ।
इक अति चतुर हुते पहिलैं ही , अब गुरु ग्रंथ पढ़ाए ।
बढ़ी बुद्धि जानी जो उनकी , जोग – सँदेस पठाए ।
ऊधौ भले लोग आगे के , पर हित डोलत धाए ।
अब अपनै मन फेर पाइहैं , चलत जु हुते चुराए ।
ते क्यौं अनीति करैं आपुन , जे और अनीति छुड़ाए ।
राज धरम तौ यहै ‘ सूर ’ , जो प्रजा न जाहिं सताए ।।

पंक्ति-दर-पंक्ति भावार्थ और व्याख्या:

“हरि हैं राजनीति पढ़ि आए”

श्रीकृष्ण अब राजनीति पढ़कर आए हैं। भावार्थ: गोपियाँ व्यंग्य करती हैं कि श्रीकृष्ण अब प्रेम नहीं, राजनीति की बातें करने लगे हैं। उनका व्यवहार अब प्रेमी का नहीं, एक चतुर राजनेता का हो गया है।

“समुझी बात कहत मधुकर के, समाचार सब पाए”

वे अब मधुकर (उद्धव) के माध्यम से समझदारी की बातें कह रहे हैं, और सब समाचार भी पा चुके हैं। भावार्थ: गोपियाँ कहती हैं कि श्रीकृष्ण ने उद्धव को भेजकर उनकी स्थिति जान ली है और अब उन्हें ज्ञान का उपदेश दे रहे हैं।

“इक अति चतुर हुते पहिलैं ही, अब गुरु ग्रंथ पढ़ाए”

वो पहले से ही बहुत चतुर थे, अब तो गुरु ग्रंथ भी पढ़ने लगे हैं। भावार्थ: श्रीकृष्ण की चतुराई पहले से थी, अब उन्होंने योग और ज्ञान के ग्रंथ पढ़कर और भी बुद्धिमान बनने का दिखावा शुरू कर दिया है।

“बढ़ी बुद्धि जानी जो उनकी, जोग-संदेस पठाए”

जब उनकी बुद्धि बढ़ गई, तो उन्होंने योग का संदेश भेज दिया। भावार्थ: गोपियाँ कहती हैं कि श्रीकृष्ण अब प्रेम की जगह योग और वैराग्य की बातें करने लगे हैं, जो उनके लिए व्यर्थ हैं।

“ऊधौ भले लोग आगे के, पर हित डोलत धाए”

ऊधव जैसे लोग भले ही आगे के (बुद्धिमान) हों, लेकिन दूसरों के हित में दौड़ते रहते हैं। भावार्थ: गोपियाँ उद्धव की भलमनसाहत को स्वीकार करती हैं, लेकिन कहती हैं कि वह दूसरों के कहने पर चल रहे हैं, स्वयं नहीं सोचते।

“अब अपनै मन फेर पाइहैं, चलत जु हुते चुराए”

अब श्रीकृष्ण अपना मन बदल लेंगे, जो पहले चुरा कर ले गए थे। भावार्थ: गोपियाँ व्यंग्य करती हैं कि श्रीकृष्ण ने उनका मन चुरा लिया था, अब शायद उसे वापस कर देंगे।

“ते क्यौं अनीति करैं आपुन, जे और अनीति छुड़ाए”

जो दूसरों को अनीति से बचाते हैं, वे खुद अनीति क्यों करें? भावार्थ: गोपियाँ तर्क देती हैं कि श्रीकृष्ण जो धर्म और नीति की बातें करते हैं, वे खुद प्रेम में अनीति क्यों कर रहे हैं?

“राज धरम तौ यहै ‘सूर’, जो प्रजा न जाहिं सताए”

सूरदास कहते हैं—राजधर्म तो वही है जिसमें प्रजा को कष्ट न हो। भावार्थ: यह पद का सबसे महत्वपूर्ण संदेश है। गोपियाँ कहती हैं कि यदि श्रीकृष्ण राजा हैं, तो उन्हें अपनी प्रजा (गोपियों) को दुख नहीं देना चाहिए। यही सच्चा राजधर्म है।

काव्य सौंदर्य और विशेषताएँ:

तत्व विवरण
भाषा ब्रज भाषा – व्यंग्यात्मक और तर्कपूर्ण
अलंकार व्यंग्य, तर्क, रूपक
भाव कृष्ण-वियोग, प्रेम की पीड़ा, राजधर्म की व्याख्या
शैली संवादात्मक, भावनात्मक, व्यंग्यात्मक

Conclusion: सूरदास के पद class 10th

सूरदास के पदों में गोपियों की अद्वितीय भक्ति, विरह की पीड़ा, और प्रेम की गहराई को अत्यंत भावपूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया गया है। इन पदों के माध्यम से छात्रों को न केवल भक्ति काल की विशेषताओं का ज्ञान मिलता है, बल्कि वे संवेदनशीलता, तर्क, और काव्य सौंदर्य को भी समझते हैं। CBSE कक्षा 10 के लिए यह अध्याय परीक्षा की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है—इसमें भावार्थ, प्रसंग, और साहित्यिक विश्लेषण की गहरी समझ आवश्यक है।

❓ FAQs – Surdas ke Pad Class 10

Q1. सूरदास के पद किस ग्रंथ से लिए गए हैं?

👉 ये पद सूरसागर के भ्रमरगीत खंड से लिए गए हैं।

Q2. इन पदों में गोपियाँ किससे संवाद कर रही हैं?

👉 गोपियाँ श्रीकृष्ण के मित्र ऊधव से संवाद कर रही हैं।

Q3. गोपियाँ योग-संदेश को क्यों अस्वीकार करती हैं?

👉 क्योंकि वे प्रेम और भक्ति को योग से श्रेष्ठ मानती हैं। योग उनके लिए कटु और अप्रासंगिक है।

Q4. परीक्षा में इस अध्याय से किस प्रकार के प्रश्न पूछे जाते हैं?

👉 भावार्थ, प्रसंग, काव्य सौंदर्य, भक्ति काल की विशेषताएँ, और गोपियों की भावनात्मक स्थिति पर आधारित प्रश्न।

Q5. सूरदास की भाषा और शैली की विशेषता क्या है?

👉 ब्रज भाषा में रचित, भावपूर्ण, संवादात्मक, और व्यंग्यात्मक शैली।

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